शनिवार, १४ नोव्हेंबर, २०१५

कुछ है - श्री सुरेश परशुराम गुरव, ठाकरे .

देखा हुआ सा कुछ
देखा हुआ सा कुछ है
तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है
उलझा हुआ सा कुछ
होता है यूं भी, रास्ता
खुलता नहीं कहीं
जंगल सा फैल जाता है
खोया हुआ सा कुछ
साहिल की गीली रेत पर
बच्चों के खेल - सा
हर लम्हा मुझ में बनता,
बिखरता हुआ सा कुछ
फ़ुरसत ने आज घर को सजाया
कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है
रोता हुआ सा कुछ
धुंधली सी एक याद किसी
कब्र का दिया
और ! मेरे आस-पास
चमकता हुआ सा कुछ
कभी - कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है

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