शनिवार, २१ मे, २०१६

श्रीपाद श्रीवल्लभ चरितामृत - अध्याय  -13

श्रीपाद श्रीवल्लभ चरितामृत

॥  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥ 

          अध्याय  -13

श्री  शंकरभट्ट  सांगतात  ''मी  सुब्बय्या  श्रेष्ठी  यांच्याकडून  अनुमती  घेऊन  कुरवपूरच्या  दिशेने  प्रयाण  सुरु  केले.  रात्रीच्या  वेळी  एका  गावात  आलो.  माधुकरीसाठी  कोणाच्या  घरी  जावे  याच  विचारात  होतो.  त्याच  मार्गावरील  एका  घरासमोरील  ओटयावर  एक  ब्राह्मण  सुखासीन  होऊन  शेजाऱ्यांशी  बोलत  असलेले  दिसले.  त्यांचे  डोळे  तेजस्वी  होते  आणि  त्यातून  कारूण्य  रस  ओसंडून  वहात  होता.  त्यांनी  मला  आदराने  घरात  बोलावले  आणि  जेवणास  वाढले.  पोटभर  जेवण  झाल्यावर  त्यांनीं  सांगण्यास  सुरवात  केली  ते  म्हणाले  ''मला  आंनद  शर्मा  असे  म्हणतात.  मी  गायत्री  मंत्राचे  अनुष्ठान  करतो.  थोडया  वेळापूर्वी  गायत्री  माता  माझ्या  अंत:दृष्टीला  दिसली  आणि  म्हणाली  एक  दत्तभक्त   येणार  आहे  त्याला  पोटभर  जेऊ  घाल.  दत्त  प्रभूंचे  दर्शन  घेतल्याचे  फळ  तुला  लाभेल.  तिने  सांगितल्या  प्रमाणे  आपले  दर्शन  घेऊन  मी  कृतार्थ  झालो.''  यावर  मी  म्हणालो  ''मी  दत्तभक्त   आहे.  सध्या  दत्तप्रभू  भूलोकात  श्रीपाद  श्री  वल्लभ  या  नावारूपाने  आहेत.  हे  ऐकून  त्यांच्या  दर्शनासाठी   मी  कुरवपुरला  निघालो  आहे.  माझे  नाव  शंकरभट्ट  आहे.  मी  कर्नाटकी  ब्राह्मण  आहे.''
       

           कण्वमुनी  आश्रम  कथा

माझे  बोलणे  ऐकून  आनंद  शर्मा  हसले  व  म्हणाले  आमच्या  वडिलांनी  माझी  मुंज  केली  तेंव्हा  एक  अवधूत  आले  होते.  आमच्या  घरातील  सर्वांनी  त्यांची  उत्तम  प्रकारे  सेवा  केली.  गायत्रीमंत्रानुष्ठाना  बद्दल  त्यांनी  बऱ्याच  गोष्टी  सांगितल्या.  ''पंचालकोन''  भागातील  श्री  नृसिंहाचे  दर्शन  घेण्याचा  त्यांनी  आदेश  दिला.  माझे  वडिल  मला  पंचालकोनला  घेऊन  गेले.  तेथील  नृसिंहाचे  दर्शन  घेतल्यावर  ते  ध्यानस्थ  झाले.  ते  ध्यान  सकाळ  पासून  रात्रीपर्यंत  चालू  होते.  मला  भीती  वाटली  व  भूकही  लागली  होती.  कोणी  एका  अनोळखी  गृहस्थाने   मला  जेवण  आणून  दिले.  तो  महात्मा  मला  घेऊन  दुर्गम  असलेल्या  जंगलातून  एका  डोंगरातील  गुहेत  गेला  आणि  तेथे  तो  अंतार्धान  पावला.  त्या  गुहेत  एक  वृद्ध  तपस्वी  बसलेले  होते.  त्यांचे  डोळे  अग्निगोलका  प्रमाणे  लाल  होते.  एकशे  एक  ऋषि  त्यांची  सेवा  करीत  होते.  ते  वृद्ध   तपस्वी  स्वत:  कण्वमुनी  होते.  ती  त्यांची  तपोभुमी  असून,  सेवा  करणारे  त्यांचे  शिष्य  होते.  ते  युवक  दिसत  असले  तरी  हजारो  वर्षाचे  त्यांचे  वय  आहे.  अवधूत  रूपातील  श्रीदत्त  प्रभूंचे  दर्शन  घडल्यामुळे  ते  येथे  येऊ  शकले  होते.  मला  संभ्रम  पडून  मी  आश्चर्यचकित  झालो  आणि  तोंडातुन  एक  शब्दहि  निघेना.  शरीर  कापू  लागले.  तेवढयात  कण्व  महर्षि  म्हणाले  सध्या  दत्तप्रभू  पीठीकापुरमला  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  रूपात  आहेत.  आमच्यावर  जरा  कृपादृष्टी  पडू  लला  होता.  कण्वमहर्षिच्या  आशिर्वादाने  मला  ध्यानांत  पादुकांचे  दर्शन  होत  असे.  एकदा  आमच्या  घरी  कांही  नातेवाइक  आले.  त्यांना  पुण्यनदीत  स्नान  करून  पुण्य  क्षेत्रांचे  दर्शन  घेण्याची  इच्छा  होती.  त्या  नातेवाइकांनी  माझ्या  वडिलांना  त्याच्या  बरोबर  येण्याचा  आग्रह  केला.  तो  त्यांनी  मान्य  केला  व  मलासुध्दा  यात्रेसाठी  बरोबर  घेतले.  राजमहेंद्री  हे  गोदावरी  नदीच्या  तीरावरील  एक  महापुण्य  क्षेत्र  आहे.  राजमहेंद्रीच्या  उत्तर  दिशेस  असलेल्या  डोंगरावर  कांही  ऋषि   तपस्या  करीत  होते  तर  कांही  पूर्वदिशेस  असलेल्या  पर्वतावर  तपश्चर्या  करीत  होते.  राजमहेंद्री  पासून  थोडे  दूर  असलेले  ''पट्टसाचला''  पुण्यक्षेत्र  गोदावरीच्या  मध्यावर  आहे.  महाशिवरात्रीच्या  या  शुभदिनी  काही  ऋषि   पट्टसाचला  या  क्षेत्री  येत  तर  काही  ऋषि   राजमहेंद्रीतील  कोटीलिंगक्षेत्रात  वेदांचे  स्वस्तिवाचन  करीत.  हे  ऋषि   परस्पर  मध्य  भागामधून  पुर्वेकडून  येत.  पश्चिम  उत्तर  आणि  दक्षिणे  कडून  येणारे  ऋषिगण  ''येदुरूलपल्ली''  या  गावी  जमत  असत.  या  येदुरूलपल्ली  ग्रामास  अगदी  जवळ  असणाऱ्या  मुनीकूडली  ग्रामामध्ये  विश्राम  घेऊन  परस्पर  चर्चा  करीत.  माझ्या  भाग्याने  माझ्या  वडिलांबरोबर  मी  मुनीकूडली  ग्रामाचे  दर्शन  घेऊ  शकलो.  ही  शेवटी  श्रीदत्त  प्रभूंचीच  लीला.
       
       कलीयुगात  श्रीदत्तात्रेयांचे  प्रथम       
                         अवतरण-श्रीपाद  श्रीवल्लभ

तेथे  जमलेले  ऋषिगण  अत्यंत  गहन  असणारा  वेदांत  विषय,  योग  शास्त्र,  ज्योतिष्य  शास्त्र  यांच्या  चर्चेत  सम्मिलित  झाले  होते.  या  चर्चेत  भाग  घेणारे  सर्व  महर्षी  मुक्त कंठाने   श्रीपाद  श्रीवल्लभ  पीठीकापुरम  मध्ये  अवतरित  होऊन  कलीयुगातील  संपूर्ण  प्रथम  दत्तावतार  आहेत  असे  घोषित  करीत  होते.  भौतिक  स्वरूपात  त्यांचे  दर्शन  घेण्यासाठी  सोय  नसणारे  ध्यानाच्या  प्रक्रियेतून  त्यांच्या  त्यांच्या  हृदयामध्येच  दर्शन  करीत  होते.  हा  अवतार  अत्यंत  शांतमय  असून  करूण  रसाने  परिपूर्ण  आहे  असे  ते  म्हणाले.

माझे  वडिल  मला  पीठीकापुरमला  घेऊन  गेले.  आमच्या  बरोबर  आलेले  पंडितवृंद   पादगया  तीर्थात  स्नान  करून  कुक्कटेश्वर  मंदिरामधील  विविध  देवतांचे  दर्शन  घेऊन  पूजा  करून  वेदांचे  पठण  करून  श्री  बापनाचार्युलुच्या  घरी  जाण्यास  निघाले.  श्री  बापनार्युलु  श्री  अप्पळराज  शर्मा  त्या  पंडितवृंदा   बरोबर  वेद  स्वस्तिवाचन  करून  आम्हाला  भेटले.  ते  दृष्य  अत्यंत  मनोहारी  होते.  असे  दिव्य  भव्य  दृष्य  पहावयास  मिळणे  हे  सुध्दा  पुर्वजन्माचे  सुकृतच.

    श्रीपाद  प्रभुंचे  दिव्य  मंगल  स्वरूप  वर्णन

आम्ह सर्वांसाठी  श्रीबापनार्युलुंच्या  घरी  मेजवानीचा  थाट  केला  होता.  त्या  वेळी  श्रीपादांचे  वय  पाच  वर्षांहून  कमीच  होते.  सुकोमल,  लहान  वयाचा  तो  दिव्य  शिशु  अत्यंत  तेजोवंत,  वर्चस्वी,  सुंदर,  अजाणबाहू,  नेत्रद्वयात  अनंत  प्रेम  करूणा  भरून  असलेला  असा  होता.  ज्याचे  वर्णन  करता  वेद  थकले  तेथे  माझ्या  सारख्या  पामराची  काय  कथा.  मी  त्यांच्या  श्री  चरणांना  स्पर्श  करून  नमस्कार  केला  तेंव्हा  त्यांनी  आपला  अभय  हस्त  माझ्या  शिरावर  ठेवला .  जन्मजन्मांतरा  पासून  माझा  अनुग्रह  तुझ्यावर  आहे.  पुढच्या  जन्मी  वेंकटय्या  या  नावाने  अवधूत  होऊन  निरताग्निहोत्री  होऊन,  दुष्काळ  पडल्यावर  पाऊस  पाडण्याचे  सामर्थ्य  तुला  प्राप्त  होईल.  तसेच  सांसारिक  लोकांना  होणाऱ्या  त्रासांचे  शमन  करण्यास  समर्थ  होशील.  असा  श्रीपाद  प्रभूंनी  आशीर्वाद  दिला.

मी  म्हणालो  ''श्रीपाद  प्रभूंच्या  लीला  अद्भुत,  अगम्य  आणि  अनाकलनीय  आहेत.  गायत्री  मंत्राच्या  साधनेतील  रहस्य  उलगडून  दाखविण्याची  कृपा  करावी.''

श्रीपाद  प्रभूंकडून  गायत्री  मंत्र  सर्वाक्षर  महिमा

आनंद  शर्मा  म्हणाले  गायत्री  शक्ति  विश्वव्याप्त  आहे.  तिच्याशी  संबंध  स्थापित  केला  असता  सूक्ष्म  प्रकृती  स्वाधीन  होते.  तिच्या  योगाने  भौतिक,  मानसिक  तसेच  आत्म्याशी  संबंधीत  क्षेत्रातील  सर्व  प्रकारची  संपत्ती  प्राप्त  होवू  शकते.  आपल्या  शरीरात  असंख्य  नाडयाचे  जाळे  पसलेले  आहे.  यातील  कांही  नाडया  जुळल्या  असता  त्यांना  ''ग्रंथी''  म्हणतात.  जपयोगात  श्रध्दा  /  निष्ठा  असलेल्या  साधकांच्या  मंत्रोच्चाराने  या  ग्रंथी  जागृत   होवून  त्यातील  सूप्त  शक्तींचा   प्रादुर्भाव  होतो.

''ॐ''  या  अक्षराचा  उच्चार  केला  असता  मस्तकातील  भाग  प्रभावित  होतो. 

''भू:''  या  अक्षराच्या  उच्चाराने  उजव्या  डोळयावरील  चार  बोटांचा  कपाळाचा  भाग  जागृत   होतो.

''भूव:''  च्या  उच्चारणाने  मानवाच्या  भृकुटीच्या  वरील  तीन  अंगुलीचा  भाग  प्रभावित  होतो.

''स्व:''  या  अक्षराच्या  उच्चाराने  डाव्या  डोळयावरील  कपाळाचा  चार  अंगुली  इतका  भाग  जागृत   होतो.

''तत्''  च्या  उच्चाराने  आज्ञा  चक्रामध्ये  असलेली  'तापिनी'  ग्रंथीतील  सूप्त  असलेली  'साफल्य'  शक्ति   जागृत   होते.

''स''  च्या  उच्चाराने  डाव्या  डोळयातील  सफलता  नांवाच्या  ग्रंथीमध्ये  सुप्त  रूपाने  असलेली  'पराक्रम'  शक्ति  प्रभावित  होते.

''वि''  चे  उच्चारण  केले  असता  डाव्या  डोळयामधील  'विश्व'  ग्रंथीमध्ये  स्थित  असलेली  'पालन'  शक्ति   जागृत   होते.

''तु''  या  अक्षराच्या  उच्चारणाने  डाव्या  कानात  असलेल्या  'तुष्टी'  नांवाच्या  ग्रंथीतील  'मंगळकर'  शक्ति   प्रभावित  होते.

''र्व''  या  अक्षराच्या  उच्चाराने  उजव्या  कानात  स्थित  असलेल्या  'वरदा'  ग्रंथीतील  'योग'  नावाची  शक्ति   सिध्द  होते.
श्री गुरुमंदिर कारंजाश्री रामदत्त महाराज

'रे''  चा  उच्चार  केला   असता  नासिकेच्या  मुळाशी  स्थित  असलेल्या  'रेवती'  ग्रंथीतील  'प्रेम'  शक्तिची   जागृती   होते.

''णि''  च्या  उच्चाराने  वरील  ओठावर   असलेल्या  'सूक्ष्म'  ग्रंथीतील  सुप्त  शक्ति   'धन'  संध्य  जागृत   होते.

''यं''  या  अक्षराच्या  उच्चाराने  आपल्या  खालच्या  ओठावर   असलेल्या  'ज्ञान'  ग्रंथीतील  'तेज'  शक्तीची   सिध्दि  होते.

''भर''  या  अक्षर  समुदायाच्या  उच्चारणाने  कंठत  असलेल्या  'भग'  ग्रंथीतील  'रक्षणा'  शक्ति   जागृत   होते.

''गो''  चा  उच्चार  केला  असता  कंठकूपात  स्थित  असलेल्या  'गोमती'  नावाच्या  ग्रंथीतील  'बुध्दि'  शक्तीची   सिध्दि  होते.

''दे''  च्या  उच्चाराने  डाव्या  छातीच्या  वरच्या  भागात  असलेल्या  'देविका'  ग्रंथीतील  'दमन'  शक्ति   प्रभावित  होते.

''व''  चा  उच्चार  उजव्या  छातीच्या  वरील  भागात  असलेल्या  'वराही'  ग्रंथीतील  'निष्ठा'  शक्तीची   सिध्दि  करतो.

''स्य''  याच्या  उच्चारणाने  पोटाच्या  वरील  बाजूस  (ज्या  ठिकाणी   बरगडया  जुळतात)  सिंहिणी  नावाची  ग्रंथी  असते.  या  ग्रंथीतील  'धारणा'  शक्ति   प्रभावित  होते.

''धी''  च्या  उच्चारणाने  यकृतात  असलेल्या  'ध्यान'  ग्रंथीतील  'प्राणशक्ति '  सिध्द  होते.

''म''  या  अक्षराच्या  उच्चाराने  आपल्या  प्लिहा  मध्ये  असलेल्या  'मर्यादा'  ग्रंथीतील  'संयम'  शक्तिची  जागृती   होते.

''हि''  च्या  उच्चाराने  नाभीमधील  'स्फुट'  ग्रंथीतील  'तपो'  शक्ति   सिध्द  होते.

''धी''  या  अक्षराच्या  उच्चारणाने  पाठीच्या   मागील  करण्याच्या  खालील  भागात  असलेल्या  'मेघा'  ग्रंथीतील  'दूरदर्शिता'  शक्तीची   सिध्दि  होते.

''यो''  च्या  उच्चारणाने  डाव्या  भूजेत  स्थित  असलेल्या  'योगमाया'  ग्रंथीतील  'अंतर्निहित'  शक्ति जागृत   होते.

''यो''  च्या  उच्चारणाने  उजव्या  भुजेमध्ये  स्थित  असलेल्या  'योगिनी'  ग्रंथीतील  'उत्पादन'  शक्ति जागृत   होते.

''न:''  या  अक्षराच्या  उच्चारणांने  उजव्या  कोपरामध्ये  असलेल्या  'धारीणी'  ग्रंथीतील  'सरसता'  शक्तीची   सिध्दि  होते.

''प्र''  या  अक्षराच्या  उच्चारणाने  डाव्या  कोपरात  असलेल्या  'प्रभव'  ग्रंथीतील  'आदर्श'  नावाच्या  शक्तीची  जागृती   होते.

''चो''  या  अक्षराच्या  उच्चारणाने  उजव्या  मनगटात  स्थित  असलेल्या  'उष्मा'  ग्रंथीतील  'साहस'  शक्तीची  सिध्दि  होते.

''द''  या  अक्षराच्या  उच्चारणाने  उजव्या  तळहातावर  असलेल्या  'दृश्य'  नांवाच्या  ग्रंथीतील  'विवेक'  शक्तीची   जागृती   होते.

''यात्''  या  अक्षर  द्वयांच्या  उच्चारणाने  डाव्या  तळहातावरील  'निरंजन'  ग्रंथीतील  'सेवा'  शक्ति  सिध्द  होते.

अशा  प्रकारे  गायत्री  मंत्रातील  चोवीस  अक्षरांचा,  चोवीस  ग्रंथी  आणि  त्याच्या  चोवीस  प्रकारच्या  शक्ति   यांच्याशी  निकटचा  संबंध  आहे.  नऊ  ही  संख्या  न  बदलणारी  असून  ब्रह्मतत्त्वाची  सूचक  आहे.  आठ   ही  संख्या  माया  तत्वाला  सूचित  करणारी  आहे.

''दो  चपाती  देव  लक्ष्मी''  ह्या  वाक्याचे  विवरण

श्रीपाद  प्रभू  त्यांना  आवडणाऱ्या  घरातून  दोन  पोळया  (चपात्या)  स्वीकार  करीत  असत.  ते  ''दो  चपाती  देव  लक्ष्मी''  असे  म्हणण्या  ऐवजी  ''दो  चौपाती  देव  लक्ष्मी''  असे  म्हणत.  ''दो''  म्हणजे  दोन  ही  संख्या  चौ  म्हणजे  चार.  ''पतिदेव''  या  शब्दात  जगत्प्रभु  असलेल्या  परमेश्वराची  नऊ  ही  संख्या  सुचित  होते.  ''लक्ष्मी''  शब्द  माया  स्वरूप  असलेल्या  आठ  या  संख्येची  सूचना  देतो.  म्हणून  2498  संख्या  अद्भूत  संख्या  मानली  जाते.  तेच  गायत्री  स्वरूप  आहे.  परमात्म  स्वरूप  आहे.  पराशक्ति   सुध्दा  तेच  आहे  हे  सुचविण्यासाठी या  संख्या  श्रीपाद  प्रभू  या  पध्दतीने  जोडीत  असत.  तेंव्हा  मी  म्हणालो  ''महाराज  !  मला  गायत्री  मंत्रातील  चोवीस  अक्षरांबद्दल  तुम्ही  सांगितलेले  थोडेसे  समजले.  9  (नऊ)  ही  संख्या  परमात्मस्वरूप  म्हणता  व  8  (आठ )  ही  संख्या  माया  स्वरूपाची  म्हणता  हे  मला  तेवढेसे  समजले  नाही.''

           नवम  संख्या  विवरण

आंनद  शर्मा  म्हणाले  ''अरे  शंकर  भट्टा  !  परमात्मा  या  विश्वाचा  अतित  आहे.  तो  कोणत्याही  परिवर्तनाने  बाधित  होत  नाही.  ''नऊ''(9)  ही  संख्या  विचित्र  आहे.  9  ला  एकाने  भागल्यास  नऊच  येतात.  9  ला  2  ने  गुणल्यास  18  येतात.  1  आणि  8  ची  बेरीज  9  च  येते.  9  ला  3  ने  गुणल्यास  27  ही  संख्या  येते.  2  आणि  7  ची  बेरीज  9  च  येते.  या  प्रकारे  कितीही  संख्येने  गुणले  आणि  येणाऱ्या  संख्येचे  आकडे  एकत्र  केल्यास  9  हीच  संख्या  येते  त्यामुळे  9  ही  संख्या  ब्रह्मतत्व  सूचविते.''

                गायत्री  मंत्राचे  विवरण

गायत्री  मंत्र  हा  कल्पतरूप्रमाणे  आहे.  यातील  ॐ  कार  भूमीतून  वर  येणारा  कोंब  मानला  जातो.  भगवंत  आहे  याचे  ज्ञान  परमेश्वरावरील  निष्ठा  ॐ  कारच्या  उच्चारणाने  येते.  हा  कोंब  तीन  शाखांमध्ये  भू:  भुव:  स्व:  याच्या  रूपाने  वाढतो.  ''भू:''  आत्मज्ञान  मिळऊन  देण्यास  समर्थ  आहे.  ''भुव:''  जीव  शरीर  धारण  करतो  तेंव्हा  करायचा  कर्मयोग  सुचवितो.  ''स्व:''  समस्त  द्वंद्वाला  स्थिरत्व  देऊन  समाधी  स्थिती  देण्यास  समर्थ  करतो.  भू:  या  शाखेतून  ''तत्  सवितु:  वरेण्यम्''  या  उपशाखा  उद्भवल्या.  शरीरधारकाला  जीवाचे  ज्ञान  करून  देण्यास  ''तत्''  उपयोगी  आहे.  शक्तीला   समुपार्जन  (मिळविणे)  करण्यासाठी  ''सवितु:''  याचे  सहकार्य  होते.  ''वरेण्यम्''  मानवाला  जंतुस्थितीतून  दिव्य  स्थितीला  जाण्यास  सहकारी  होतो.

''भुव:''  या  शाखेतून  ''भर्गो,  देवस्य  धीमही''  या  तीन  उपशाखा  उत्पन्न  झाल्या  आहेत.  ''भर्गो''  निर्मलत्व  वाढवितो.  ''देवस्य''  देवतानाच  केवळ  साध्य  असलेली  दिव्यदृष्टी  मिळवून  देतो.  ''धीमही''  ने  सद्गुणांची  वृद्धी   होते.  ''स्व:''  यातून  ''धियो''  मुळे  विवेक,  ''योन:''  मुळे  संयम,  ''प्रचोदयात्''  मुळे  समस्त  जीवसृष्टीचा  सेवाभाव  वाढीस  लागतो.

या  करीता  गायत्री  कल्पवृक्षच्या  तीन  शाखा  आहेत.  प्रत्येक  शाखेत  तीन-तीन  उपशाखा  हे  समजले  ना  ?  म्हणून  2498  ही  श्रीपादांचे  सूचन  करणारी  संख्या  आहे.  यातील  ''9''  नउ  संख्येचे  विवरण  तुला  सांगितले.

           ''अष्टम''  (8)  संख्येचे  विवरण

आठ   ही  संख्या  मायास्वरूप  आहे  हे  अनघा  माता  तत्व  आहे.  आठास   एकाने  गुणले  असता  8  च  येतात.  2  ने  गुणल्यास  16  येतात.  यातील  एक  व  सहा  मिसळल्यास  सात  (7)  येतात.  हे  आठ   पेक्षा  कमी  आहेत.  8  ला  3  ने  गुणल्यास  24  हीसंख्या  येते.  यातील  2  आणि  4  ची  बेरीजकेल्यास  6  येतात.  हे  सातापेक्षा  कमी  आहेत.  या  प्रमाणे  सृष्टीतील  समस्त  जीवराशी  मधील  शक्ति   हरण  सामर्थ्य  जगन्मातेत  आहे.  कोणी  कितीही  मोठा   असला  तरी  त्याला  लहान  करून  दाखविण्याची  शक्ति   मायेत  आहे.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  गायत्री  माता  स्वरूप  आहेत,  ते  अनघा  देवी  समवेत  श्रीदत्त  आहेत.  त्यांची  मनोवाकायकर्माने  आराधना  करण्याने  सर्व  इच्छा  पूर्ण  होतात.

गायत्री  मातेमध्ये  प्रात:काळी  हंसारूढ  असलेली  ब्राह्मी  शक्ति   असते.  मध्याह्नकाळात  गरुडारूढ  असलेली  वैष्णवी  शक्ति   असते.  सायंकाली  वृषभारूढ  असलेली  शांभवी  शक्ति   असते.  गायत्री  मंत्राची  अधिष्ठात्रि  देवता  सविता  आहे.  त्रेतायुगात  श्री  पीठिकापुरात  भारद्वाज  महर्षिनी  सावित्र   काठक  चयन  केल्याचे  फळस्वरूप  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  अवतार  झाला.  सवितादेवता  प्रात:काळी  ऋग्वेद  रूपात  असते  रात्री  अथर्व  वेदरूपात  असते.  आपल्या  डोळयांना  दिसणारा  सूर्य  केवळ  एक  प्रतिकरूप  आहे.  योगी  जेंव्हा  महाउन्नत  स्थितीला  पोचतात  तेंव्हा  त्रिकोणाकार  असलेल्या  महाजाज्वल्यमान  प्रकाशमान  ब्रह्मयोनीचे  दर्शन  घेऊ  शकतात.  यातूनच  कोटयान्  कोटी  ब्रह्मांड  प्रतिक्षणाला  उत्पन्न  होतात.  आणि  प्रतिक्षणी  संरक्षण  होत  असते,  प्रतिक्षणाला  विध्वंस  होत  असतो.  असंख्य  असणाऱ्या  खगोलातील  सृष्टी ,  स्थिती,  लय  घडविणाऱ्या  शक्तीचे   ''सावित्री''  हे  नांव  आहे.  असे  असले  तरी  गायत्री  आणि  सावित्री  या  अभिन्न  आहेत.  जीवाची  अध्यात्मिक  उन्नती  गायत्री  मातेच्या  अनुग्रहाने  होते.  इह  लोकातील  सर्व  सुखोपभोगांचा  अनुभव  घेण्यासाठी,  परलोकातील  विमुक्त   स्थितीतील  दिव्यानंदाचा  अनुभव  येण्यासाठी  दोहीमधे  समन्वय  होणे  आवश्यक  आहे.  श्रीपादांच्या  चरणाश्रितांना  इह-पर  लोक  दोन्हींचा  लाभ  होतो.  इतर  देवता  व  श्री  दत्तात्रेयांच्या  आराधनेतील  फरक  हाच  आहे.  मला  आनंदशर्मा  महोदयांनी  दिलेला  सल्ला  किती  अपूर्व  होता.  तेंव्हा  मी  (शंकरभट्ट)  म्हणालो  महाराज  तुम्ही  किती  धन्य  आहात.  श्रीपाद  प्रभू  जेंव्हा  नृसिंह   सरस्वती  अवतार  धारण  करतील  त्या  वेळी  आपण  त्यांचे  गुरु  होऊन  संन्यास  दीक्षा  प्रदान  कराल  त्या  जन्मात  आपण  श्री  कृष्ण  सरस्वती  या  नावाने  संन्यास  धर्माचे  आचरण  करीत  असणार.  यावर  आनंदशर्मा  म्हणाले,  ''भगवंताचा  अवतारच  भक्तासाठी  असतो.  ते  मानवरूप  धारण  करून  पृथ्वीवर  येऊन  आपल्या  आदर्श  आचार  संपन्न  जीवनाने  सर्व  मानवांना  शिकवण  देतात.  ते  स्वत:  सर्वज्ञ  असले  तरी  सुध्दा  गुरुंचा  स्वीकार  करून  समाजाला  गुरुच्या  आवश्यकतेचे  महत्व  आपल्या  कृतीने  समजाऊन  देतात.  अवतारी  पुरुषाचे  गुरु  होण्याची  क्षमता  एखाद्यालाच  लाभते.  अवतारी  पुरुष  जन्माला  यायचे  म्हणजे  त्या  वंशात  पूर्वीच्या  ऐंशी पीढयांनी  पुण्य  संचय  केलेला  असतो.  तसेच  अवतारी  पुरुषाचे  गुरु  होणाऱ्या  व्यक्तीचा   वंश  परम  पवित्र  पुण्यवान  असावा  लागतो.''

बापनाचार्युलु  आणि  मायणाचर्य  यांच्या  वंशाचे  अनेक  पिढयांपासून  संबंध  होते.  मल्लादीच्या  घरी  मुलगी  झाली  तर  वाजपेय  याजुलुच्या  घरची  सून  होणार  आणि  वाजपेय  याजुलुच्या  घरी  मुलगी  झाल्यास  मल्लादींची  सून  होणार  असे  ते  गंमतीने  म्हणत  असत.  बापनार्याची  मुलगी  सकल  सौभाग्यवती   सुमती  वाजपेय  याजुलुच्या  घरी  दिली  नाही.  तिचा  विवाह  विधिलिखित  अगोचर  असलेल्या  दिव्य  ''घंडिकोटा  अप्पळराजु  शर्मा''  यांच्या  बरोबर  झाला.

साक्षात्  दत्तावतार  श्रीपाद  श्री  वल्लभांनी  त्यांच्या  मातेचा  रक्त   संबंध  असलेल्या  वाजपेय  याजुलुचा  सुध्दा  उध्दार  केला.  माधवाचार्यांना  श्रीपाद  प्रभूंबद्दल  अति  वात्सल्य  भाव  होता.  हेच  पुढे  विद्यारण्य  महर्षि  झाले.  त्यांचे  शिष्य  मलयानंद,  त्यांचे  शिष्य  देवतीर्थ,  त्यांचे  शिष्य  यादवेंद्र  सरस्वती  आणि  यादवेंद्र  सरस्वतींचे  शिष्य  श्री  कृष्णसरस्वती.  विद्यारण्य  महर्षि  आणि  कृष्ण  सरस्वती  यांच्या  मध्ये  गुरु  शिष्यांच्या  तीन  पिढया  होतील.  श्री  विद्यारण्य  हेच  कृष्णसरस्वतीच्या  रूपाने  अवतरीत  होतील  आणि  ते  श्रीपादांच्या  नंतरच्या  अवतारातील  गुरुपद  शोभविणार  आहेत.

श्रीपाद  नित्य  सत्य  वचन  बोलत.  त्यानी  उच्चारलेले  प्रत्येक  वाक्य  सत्य  होत  असे.  एकदा  सुमती  महाराणी  श्रीपादांना  स्नान  घालीत  होती.  तेवढयात  वेंकटप्पय्या  श्रेष्टी  तेथे  आले.  त्याना  पाहून  श्रीपाद  म्हणाले  ''आपले  गोत्र  माडेय  का  ?''  हे  ऐकून  उत्तर  न  देता  श्रीपादांचे  गोड  बोलणे  ऐकून  हसले.  वास्तविक  पहाता  श्रीपादांचे  गोत्र  भारद्वाज  होते.  श्रीपादांना  वाटले  वेंकटप्पय्या  श्रेष्ठी  सुध्दा  आपले  गोत्रज  आहेत.  स्नानानंतर  सुमती  देवीनी  गुंडीतील  पाणी  ओवाळून  टाकले  आणि  ''माडेया  सारखा  आयुष्यमान  हो''  असा  आशिर्वाद  दिला.  माडेयाला  सोळा  वर्षाचे  आयुष्य  होते.  पुढे  शिवांच्या  आशीर्वादाने  तो  चिरंजीव  झाला.  श्रीपाद  प्रभू  सोळा  वर्षेपर्यंतच  आईवडिलाजवळ  राहणार,  हे  वर्म  गर्भित  पणे  सुचविले  होते.  सोळा  वर्षानंतर  माडेयांनी  गृहत्याग  केला  होता  व  ते  चिरंजीव  झाले.  श्रीपाद  प्रभु  सुध्दा  सोळा  वर्षे  आईवडिलांकडे  राहिले  नंतर  जगद्गुरु  झाले.  नंतर  यथाकाली  गुप्त  झाले.  त्यांच्या  शरीराला  चिरंजीवित्व  लाभले.  आपण  ज्या  स्वरूपात  श्रीपादांना  पहातो  त्याच  स्वरूपात  अत्रि-अनसूयेच्या  कुमाराच्या  रूपात  ते  अवतरले  होते.  असे  त्यांनी  आपल्या  वक्तव्यात   अनेक  वेळा  सांगितले  होते.

            श्रीपादांची  विविध  रूपे

श्रीपाद  प्रभू  त्यांच्या  योगशक्तिला  बर्हिमुख  करून  स्त्रीरूपात  दर्शन  देत  असत.  तसेच  त्यांच्या  योगशक्तीचे   दर्शन  सुध्दा  आपल्या  साधकाना  देत  असत.  हे  किती  अपूर्व  होते.  कुंडलिनी  शक्ति   अशी  बहिर्मुख  केवळ  दत्तात्रय  भगवानच  करू  शकत.  सोळा  वर्षाच्या  वयाचे  असतानाचे  नवयोवन  दंपतिरूप  श्रीपाद  प्रभूंनी,  त्यांच्या  माता-पिता,  नरसिंह  वर्मा  पती-पत्नी,  बापनार्युलु-राजमाम्बा,  वेंकटप्पय्या  श्रेष्ठी  दांपत्य  या  सर्वांना  आपल्या  अद्भूत  लीलाशक्तीचे  स्वरूप  दाखविले.  श्रीपादांच्या  सोळाव्या
वर्षी  त्यांचा  विवाह  करावा  अशी  त्यांच्या  माता  पित्यांची  फार  इच्छा  होती.  परंतु  त्यांची  निराशाच  झाली.  श्रीपादांनी  सुमती  मातेस  अवधूत  रूपात  दर्शन  दिले  होते  तेंव्हा  सांगितले  होते  ''माते  !  तुझा  मुलगा  सोळा  वर्षाचा  होई  पर्यंत  तुझ्याजवळ  राहील.  त्याच्या  विवाहाचा  संकल्प  केला  तर  तो  ऐकणार  नाही.  गृहत्याग  करून  निघून  जाईल.  त्यासाठी  त्याच्या  मना  प्रमाणे  वागावे.  श्री  अनघा-दत्त  हे  आदिदांपत्य  आहेत  त्यांना  जन्म-मरण  नाही.  ते  सर्वदा  लीलाविहार  करतात.  ते  श्रीपाद  वल्लभांच्या  रूपात,  नृसिंह   सरस्वतींच्या  रूपात,  स्वामी  समर्थांच्या  रूपात  अर्धनारीश्वर  होऊन  राहतील.''

मंडलकाल  अर्चना  आणि  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  चरितामृताचे  पारायण  केल्याने  मिळणारे  फळ

श्रीपादांचा  गणेश  चतुर्थीस  अवतार  झाला  हे  विशेष  आहे.  ''लाभ''  हा  गणेशाचा  पुत्र  एका  युगात  लाभाद  महर्षि  या  नावाने  नावाजला  होता.  तोच  श्रीकृष्ण  अवतारात  नंद  या  रूपात  जन्मास  आला.  श्री  वासवी  माता  या  भूमीवर  भास्कराचार्य  या  नांवाने  अवतरल्या.  ''लाभ''  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  अवतार  कालात  त्यांचे  आजोबांच्या  स्वरूपात  जन्मास  आले  होते.  आपल्या  तत्वामध्ये  विघ्नविनाशक  तत्व  स्थिर  करून  श्रीपाद  प्रभु  अवतरले.  ते  अवतरले  तेंव्हा  चित्रा  नक्षत्र  होते.  त्या  नक्षत्रा  पासून  सत्ताविसावे  नक्षत्र  (हस्त  नक्षत्र)  असताना  कुरवपुरात  अदृश्य  झाले.  जन्मपत्रिके  प्रकारे  27  नक्षत्रात  भ्रमण  करणाऱ्या  नवग्रहा  पासून  मिळणारे  अनिष्ट  फल  निघून  जाण्यासाठी  श्रीपादांचे  भक्त  मंडल  दीक्षा  घेतात.  एका  मंडलामध्ये  श्रध्दा  भक्तीने  श्रीपादांचे  अर्चन  केल्यास  किंवा  त्यांच्या  दिव्य  चरित्राचे  पारायण  केल्यास  सर्व  कामनांची  सिध्दि  होते.  मन,  बुध्दी,  चित्त  आणि  अहंकार  हे  एका  एका  दिशेने  आपली  स्पंदने  आणि  प्रकंपने  सोडीत  असतात.  त्यांचे  प्रकंपन  वेगवेगळया  चाळीस  दिशांमध्ये  प्रसरण  पावतात.  या  चाळीस  दिशामधून  होणारे  प्रकंपन  थांबवून  श्रीपाद  प्रभूंकडे  वळविले  तर  ते  श्रीपादांच्या  चैतन्यात  विलिन  होतात.  तेथे  ते  आवश्यक  बदल  घडवून  स्पंदनामध्ये  रूपांतरीत  होऊन  साधकाकडे  पुन्हा  येतात.  यानंतर  साधकाच्या  धर्मानुकूल  सर्व  इच्छा  पूर्ण  होतात.  ''अरे  शंकरभट्टा  !  तू  श्रीपाद  प्रभूंचे  चरित्र  लेखन  करशील,  असे  अंत:दृष्टीने  कळले  आहे.  लोकांमध्ये  व्यवहारात  असलेल्या  पारायण  ग्रंथात  लेखकांची  वंशावळी,  केवळ  मनांत  नसताना  रचली  गेलेली  स्तोत्रे  वगैरे  असतात.  तू  लिहिलेल्या  प्रभूचरित्रामध्ये  तुझ्या  वंशावळीची  आवश्यकता  नाही.  प्रभूंचे  ध्यान  करून  तुझ्या  अंतर्नेत्रामध्ये  श्रीपादांना  समोर  आणून  सर्वाना  सुलभतेने  समजेल  अशा  रीतीने  रचना  करशील  तेंव्हा  श्रीपादांचे  चैतन्य  तुझ्या  लेखणी  द्वारे  जे  विवरण  करेल  तेच  सत्य  होईल.  या  प्रकारे  स्फूर्तीने  लिहिलेला  ग्रंथ  किंवा  उच्चारलेले  मंत्र  छंदोबध्द  असण्याची  आवश्यकता  नाही.  कांही  महाभक्तांना   दैवी  साक्षात्कार  होऊन  त्यांच्या  त्यांच्या  स्थानिक  भाषेत  स्तोत्र  प्रार्थना  स्फुरतील.  त्या  छंदोबध्द  व्याकरण  दृष्टया  अगदी  बरोबर  असण्याची  गरज  नाही.  भक्त   जी  पदे  म्हणतील  त्या  पदामध्ये  परमेश्वराने  संतुष्ट  होऊन  वर  दिलेला  असल्याने  त्यामध्ये  परमेश्वराची  अनुग्रह  शक्ति   असते.  त्या  पदांमध्ये  असलेल्या  स्तोत्रांचे  आपण  पठण  केल्यास  आपले  चैतन्य  तत्काळ  भगवद्  चैतन्याशी सामिप्य  पावते.  परमेश्वर  भावप्रिय  आहे.  भाष्यप्रिय  नाही.  भावना  म्हणजे  शाश्वत  शक्ति .  श्रीपाद  प्रभूंचे  मल्लादी,  वेंकटप्पय्या  श्रेष्ठी  आणि  वत्सवाई  या  तीन  कुटुंबांशी  अत्यंत  सख्य  होते.  एका  सणाच्या  निमित्ताने  वेंकटप्पा  श्रेष्ठीनी  अप्पळराजू  दांपत्यास  त्यांच्या  घरी  आमंत्रित  केले  होते.  त्या  दिवशी  श्रेष्ठी  बरेच  गंभीर  दिसत  होते.  त्याला  तसेच  कारण  होते.  पीठीकापुरममधील  एका  सुप्रसिध्द  ज्योतिषाने  श्रेष्ठीच्या  मृत्यूची  वेळ,  दिवस,  वार,  तिथी  सर्व  सांगितले  होते.  त्यांचे  ज्योतिष  आतापर्यंत  कधी  खोटे  ठरले  नव्हते  हेच  कारण  श्रेष्ठींच्या  गंभीरपणाचे  होते.  त्या  ज्योतिष्याने  अशी  प्रतिज्ञा  केली  होती  की  त्यांची  भविष्यवाणी  खोटी  झाल्यास  तो  मुंडन  करून  गाढवावर  बसून  गांवभर  फिरेल.  अपमृत्यूटाळण्यासाठी अप्पळराजू  शर्मा  यांनी  कालाग्नी  शमनाची  पूजा  करून  त्याचा  प्रसाद  श्रेष्ठींना  आणून  दिला.  थोडयाच  वेळात  सुमती  महाराणी  भरजरी  वस्त्रे  परिधान  करून  श्रीपादास  घेऊन  श्रेष्ठींकडे  आली.  तेवढयात  श्रेष्ठीच्या  हृदयात  असह्य  वेदना  होऊ  लागल्याने  ते  मोठ्याने  ''आई''  असे  ओरडू  लागले.  सुमती  त्यांच्याकडे  धावतच  गेली.  त्या  दिव्य  मंगल  स्वरूपातल्या  साध्वीने  आपल्या  दिव्य  श्रीहस्ताने  श्रेष्ठीच्या  हृदयावर  स्पर्श  केला  त्याच  वेळी  श्रीपाद  ''जा''  असे  जोरात  ओरडले.  श्रेष्ठींच्या  घरात  एक  बैल  होता  त्याने  तडफडून  काही  क्षणातच  आपले  प्राण  सोडले  आणि  श्रेष्ठी  वाचले.  ही  बातमी  कळताच  तो  ज्यातिषी  धावतच  श्रेष्ठींच्या  घरी  आला.  आपली  भविष्यवाणी  चुकल्याची  त्याला  खंत  वाटली.

श्रीपाद  त्या  ज्योतिष्याला  म्हणाले.''तू  ज्योतिषाचा  खूप  अभ्यास  केला  आहेस.परंतु  सर्व  ज्योतींची  ज्योती  मी  असताना  श्रेष्ठींना  मृत्यूभय  कसले.  तू  शिरोमुंडन  करून  गाढवावरून  फिरायची  गरज  नाही.  तुला  पश्चाताप  झाला  हेच  पुरे.  तुझे  वडिल  जिवंत  असताना  त्यांनी  श्रेष्ठींकडून  कर्ज  घेतले  होते.  ते  परत  न  करता  खोटेच  गायत्रीची  शपथ  घेऊन  सांगितले  की  त्यांनी  ते  परत  केले.  या  पापामुळे  त्यांना  श्रेष्ठींच्या  घरी  बैलाचा  जन्म  घ्यावा  लागला.  हीन  योनीत  असलेल्या  तुझ्या  वडिलांना  उत्तम  जन्माचा  प्रसाद  दिला.  श्रेष्ठींच्या  अपमृत्यूचे  कर्मफल  बैलाकडे  वळविले.  तू  या  बैलाचा  दाह  संस्कार  करून  अन्नदान  कर.  तुझ्या  वडिलाचे  वाइट  कर्मफल  नष्ट  होऊन  उत्तम  गती  प्राप्त  होईल.  श्रीपादांच्या  सांगण्यानुसार  त्या  ज्योतिषाने  केले.

श्रीपाद  प्रभू  अनेक  प्रकारे  प्राण  रक्षण  करू  शकतात.  श्रीपाद  योगसंपन्न  अवतार  आहेत.  त्यांना  काहीच  असाध्य  नाही.  उच्छ्वास,  निश्वासाच्या  गतीचे  विच्छेदन  केल्याने  मुक्ति   प्राप्त  करून  घेणे  सोपे  आहे.  क्रियायोगी  ज्यांची  प्राणशक्ति ,  आज्ञा,  विशुध्द  अनाहत,  मणीपूर,  स्वाधिष्ठान  मुलाधार  चक्रात  फिरऊन  वरून  खाली,  खालून  वर  परिभ्रमण  करतात.  एका  क्रियेला  लागणारा  वेळ  एका  वर्षामध्ये  साधारण  होणाऱ्या  अध्यात्मिक  विकासा  एवढा  असतो.  रात्र  दिवसाच्या  एक  तृतीयांश   वेळात  एक  हजार  क्रिया  झाल्या  तर  केवळ  तीन  वर्षात  सहजतेने  प्रकृती  द्वारा  दहा  लाख  वर्षात  होणारा  परिणाम  दिसून  येतो.

॥  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जयजयकार  असो  ॥

       श्री गुरुदेव दत्त

      श्री स्वामी समर्थ

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