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शुक्रवार, २२ एप्रिल, २०१६

श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित !!

हम सब हनुमान चालीसा पढते हैं, सब रटा रटाया।

क्या हमे चालीसा पढते समय पता भी होता है कि हम हनुमानजी से क्या कह रहे हैं या क्या मांग रहे हैं?

बस रटा रटाया बोलते जाते हैं। आनंद और फल शायद तभी मिलेगा जब हमें इसका मतलब भी पता हो।

तो लीजिए पेश है श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित!!
        
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श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।
《अर्थ》→ गुरु महाराज के चरण.कमलों की धूलि से अपने मन रुपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला हे।★
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बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।★
《अर्थ》→ हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन.करता हूँ। आप तो जानते ही हैं, कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सदबुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुःखों व दोषों का नाश कर दीजिए।★
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जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥1॥★
《अर्थ 》→ श्री हनुमान जी! आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों,स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।★
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राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥★
《अर्थ》→ हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नही है।★
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महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥★
《अर्थ》→ हे महावीर बजरंग बली! आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है, और अच्छी बुद्धि वालो के साथी, सहायक है।★
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कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥★
《अर्थ》→ आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।★
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हाथ ब्रज और ध्वजा विराजे, काँधे मूँज जनेऊ साजै॥5॥★
《अर्थ》→ आपके हाथ मे बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।★
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शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥★
《अर्थ 》→ हे शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन! आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर मे वन्दना होती है।★
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विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥★
《अर्थ 》→ आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम काज करने के लिए आतुर रहते है।★
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प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥★
《अर्थ 》→ आप श्री राम चरित सुनने मे आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय मे बसे रहते है।★
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सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रुप धरि लंक जरावा॥9॥★
《अर्थ》→ आपने अपना बहुत छोटा रुप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके.लंका को जलाया।★
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भीम रुप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥★
《अर्थ 》→ आपने विकराल रुप धारण करके.राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उदेश्यों को सफल कराया।★
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लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥★
《अर्थ 》→ आपने संजीवनी बुटी लाकर लक्ष्मणजी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।★
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रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥★
《अर्थ 》→ श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा की तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।★
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सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्री पति कंठ लगावैं॥13॥★
《अर्थ 》→ श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से.लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।★
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सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद,सारद सहित अहीसा॥14॥★
《अर्थ》→श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।★
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जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते, कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥15॥★
《अर्थ 》→ यमराज,कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।★
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तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥★
《अर्थ 》→ आपनें सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।★
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तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥17॥★
《अर्थ 》→ आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।★
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जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥★
《अर्थ 》→ जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है की उस पर पहुँचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझ कर निगल लिया।★
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प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि, जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥★
《अर्थ 》→ आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुँह मे रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नही है।★
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दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥★
《अर्थ 》→ संसार मे जितने भी कठिन से कठिन  काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।★
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राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥21॥★
《अर्थ 》→ श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप.रखवाले है, जिसमे आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नही मिलता अर्थात आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।★
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सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू.को डरना॥22॥★
《अर्थ 》→ जो भी आपकी शरण मे आते है, उस सभी को आन्नद प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक. है, तो फिर किसी का डर नही रहता।★
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आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हाँक ते काँपै॥23॥★
《अर्थ. 》→ आपके सिवाय आपके वेग को कोई नही रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक काँप जाते है।★
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भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै॥24॥★
《अर्थ 》→ जहाँ महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहाँ भूत, पिशाच पास भी नही फटक सकते।★
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नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा॥25॥★
《अर्थ 》→ वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है,और सब पीड़ा मिट जाती है।★
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संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥★
《अर्थ 》→ हे हनुमान जी! विचार करने मे, कर्म करने मे और बोलने मे, जिनका ध्यान आपमे रहता है, उनको सब संकटो से आप छुड़ाते है।★
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सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा॥ 27॥★
《अर्थ 》→ तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यो को आपने सहज मे कर दिया।★
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और मनोरथ जो कोइ लावै, सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥★
《अर्थ 》→ जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करे तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन मे कोई सीमा नही होती।★
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चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥★
《अर्थ 》→ चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग मे आपका यश फैला हुआ है, जगत मे आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।★
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साधु सन्त के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥★
《अर्थ 》→ हे श्री राम के दुलारे ! आप.सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।★
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अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥३१॥★
《अर्थ 》→ आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।★
1.) अणिमा → जिससे साधक किसी को दिखाई नही पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ मे प्रवेश कर.जाता है।★
2.) महिमा → जिसमे योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है।★
3.) गरिमा → जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है।★
4.) लघिमा → जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है।★
5.) प्राप्ति → जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।★
6.) प्राकाम्य → जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी मे समा सकता है, आकाश मे उड़ सकता है।★
7.) ईशित्व → जिससे सब पर शासन का सामर्थय हो जाता है।★
8.)वशित्व → जिससे दूसरो को वश मे किया जाता है।★
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राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥★
《अर्थ 》→ आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण मे रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।★
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तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥★
《अर्थ 》→ आपका भजन करने से श्री राम.जी प्राप्त होते है, और जन्म जन्मांतर के दुःख दूर होते है।★
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अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥★
《अर्थ 》→ अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलायेंगे।★
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और देवता चित न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥★
《अर्थ 》→ हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नही रहती।★
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संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥★
《अर्थ 》→ हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।★
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जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥★
《अर्थ 》→ हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझपर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।★
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जो सत बार पाठ कर कोई, छुटहि बँदि महा सुख होई॥38॥★
《अर्थ 》→ जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बन्धनों से छुट जायेगा और उसे परमानन्द मिलेगा।★
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जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥★
《अर्थ 》→ भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।★
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तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥40॥★
《अर्थ 》→ हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है।इसलिए आप उसके हृदय मे निवास कीजिए।★
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पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥★
《अर्थ 》→ हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनन्द मंगलो के स्वरुप है। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय मे निवास कीजिए।★
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सीता राम दुत हनुमान जी को समर्पित

हनुमान चालीसा


                ॥दोहा॥

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ॥
॥चौपाई॥

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥१॥

राम दूत अतुलित बल धामा ।
अञ्जनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥२॥

महाबीर बिक्रम बजरङ्गी ।
कुमति निवार सुमति के सङ्गी ॥३॥

कञ्चन बरन बिराज सुबेसा ।
कानन कुण्डल कुञ्चित केसा ॥४॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै ।
काँधे मूँज जनेउ साजै ॥५॥

सङ्कर सुवन केसरीनन्दन ।
तेज प्रताप महा जग बन्दन ॥६॥
बिद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ॥७॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ।
राम लखन सीता मन बसिया ॥८॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा ।
बिकट रूप धरि लङ्क जरावा ॥९॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे ।
रामचन्द्र के काज सँवारे ॥१०॥

लाय सञ्जीवन लखन जियाये ।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥११॥

रघुपति कीह्नी बहुत बड़ाई ।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥१२॥

सहस बदन तुह्मारो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥१३॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ।
नारद सारद सहित अहीसा ॥१४॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते ।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥१५॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीह्ना ।
राम मिलाय राज पद दीह्ना ॥१६॥

तुह्मरो मन्त्र बिभीषन माना ।
लङ्केस्वर भए सब जग जाना ॥१७॥

जुग सहस्र जोजन पर भानु ।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥१८॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं ।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥१९॥

दुर्गम काज जगत के जेते ।
सुगम अनुग्रह तुह्मरे तेते ॥२०॥

राम दुआरे तुम रखवारे ।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥२१॥

सब सुख लहै तुह्मारी सरना ।
तुम रच्छक काहू को डर ना ॥२२॥

आपन तेज सह्मारो आपै ।
तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥२३॥

भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
महाबीर जब नाम सुनावै ॥२४॥

नासै रोग हरै सब पीरा ।
जपत निरन्तर हनुमत बीरा ॥२५॥

सङ्कट तें हनुमान छुड़ावै ।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥२६॥

सब पर राम तपस्वी राजा ।
तिन के काज सकल तुम साजा ॥२७॥

और मनोरथ जो कोई लावै ।
सोई अमित जीवन फल पावै ॥२८॥

चारों जुग परताप तुह्मारा ।
है परसिद्ध जगत उजियारा ॥२९॥

साधु सन्त के तुम रखवारे ।
असुर निकन्दन राम दुलारे ॥३०॥

अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता ।
अस बर दीन जानकी माता ॥३१॥

राम रसायन तुह्मरे पासा ।
सदा रहो रघुपति के दासा ॥३२॥

तुह्मरे भजन राम को पावै ।
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥३३॥

अन्त काल रघुबर पुर जाई ।
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥३४॥

और देवता चित्त न धरई ।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥३५॥

सङ्कट कटै मिटै सब पीरा ।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥३६॥

जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ॥३७॥

जो सत बार पाठ कर कोई ।
छूटहि बन्दि महा सुख होई ॥३८॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा ।
होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥३९॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा ।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥४०॥

॥दोहा॥

पवनतनय सङ्कट हरन मङ्गल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ॥ ����

मारुतिस्तोत्रं

भीमरूपी महारुद्रा, वज्रहनुमान मारुती |
वनारी अंजनीसूता रामदूता प्रभंजना ||१||

महाबळी प्राणदाता, सकळां उठती बळें |
सौख्यकारी दुखःहारी, दूत वैष्णवगायका ||२||

दीनानाथा हरीरूपा, सुंदरा जगदंतरा |
पातालदेवताहंता, भव्यसिंदूरलेपना ||३||

लोकनाथा जगन्नाथा, प्राणनाथा पुरातना |
पुण्यवंता पुण्यशीला, पावना पारितोषिका ||४||

ध्वजांगे उचली बाहो, आवेंशें लोटला पुढें |
काळाग्नी काळरुद्राग्नी, देखतां कांपती भयें ||५||

ब्रह्मांडे माईली नेणो, आंवळे दंतपंगती |
नेत्राग्नी चालिल्या ज्वाळा, भुकुटी ताठिल्या बळें ||६||

पुच्छ ते मुरडिले माथां, किरीटी कुंडले बरीं |
सुवर्ण कटी कांसोटी, वंटा किंकिणी नागरा ||७||

ठकारे पर्वता ऐसा, नेटका सडपातळू |
चपळांग पाहतां मोठे, महाविद्युल्लतेपरी ||८||

कोटिच्या कोटि उड्डाणें, झेपावे उत्तरेकडे |
मंद्रादिसारखा द्रोणू, क्रोधे उत्पाटिला बळें ||९||

आणिला मागुतीं नेला, आला गेला मनोगती |
मनासी टाकिले मागे, गतीसी तुळणा नसे ||१०||

अणूपासोनि ब्रह्मांडाएवढा होत जातसे |
तयासी तुळणा कोठे, मेरु मंदार धाकुटे ||११||

ब्रह्मांडाभोवते वेढे, वज्रपुच्छें करू शकें |
तयासी तुलना कैची, ब्रह्मांडी पाहता नसे ||१२||

आरक्त देखिलें डोळा, ग्रासिलें सूर्यमंडळा |
वाढता वाढता वाढे, भेदिलें शून्यमंडळा ||१३||

धन धान्य, पशूवृद्धि, पुत्रपौत्र समस्तही |
पावती रूपविद्यादी, स्तोत्रपाठें करूनियां ||१४||

भूतप्रेत समंधादी, रोगव्याधी समस्तहीं |
नासती तूटती चिंता, आनंदे भीमदर्शनें ||१५||

हे धरा पंधरा श्र्लोकी, लाभली शोभली बरी |
दृढदेहो निसंदेहो, संख्या चन्द्रकळा गुणें ||१६||

रामदासी अग्रगण्यू, कपिकुळासि मंडणू |
रामरूपी अंतरात्मा, दर्शने दोष नासती ||१७||

॥ इति श्री रामदासकृतं संकटनिरसनं मारुतिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

गुरुवार, २४ डिसेंबर, २०१५

श्रीदत्तात्रेयस्तोत्र

सुप्रभात
॥ श्री स्वामी समर्थ ॥
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भगवान श्रीदत्तात्रेयांच्या कृपेने देवऋषी  श्रीनारदमुनींनी रचलेले     
"दिव्य श्रीदत्तात्रेयस्तोत्र"
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☆- हे स्तोत्र अतिशय दिव्य असून श्रीदत्तात्रेयांचे साक्षात् दर्शन करविणारे आहे. असे हे स्तोत्र श्रीनारदपुराणातील असुन हे स्वतः श्रीनारदमुनींनीच रचले आहे.

☆- हे स्तोत्र शत्रूंचा नाश करणारे, तसेच शास्त्रज्ञान व प्रत्यक्ष ब्रम्हानुभव देणारे असून याच्या पठणाने सर्व पापांचे शमन होते. तथा या स्तोत्राच्या नियमित पठणाने श्रीगुरुदत्तात्रेयांचा कृपाशिर्वाद लाभेल.

॥ श्रीदत्तत्रेय स्तोत्रम् ॥
========================
ध्यानम् :-
------------
जटाधरं पाण्डुरंगं
शूलहस्तं कृपानिधिम् |
सर्वरोगहरं देवं
दत्तात्रेयमहं भजे ||
*(अर्थ :- जटाधारी, गौरवर्ण, हातात त्रिशूल धारण करणाऱ्या. दयानिधी, सर्वरोग नाहीसे करणार्‍या श्रीदत्तत्रेयदेवांना मी भजतो.)

विनियोग: :-
---------------
ॐ अस्य श्रीदत्तत्रेयस्तोत्रमन्त्रस्य
भगवान् नारद ऋषि; अनुष्टुप् छन्दः
परमात्मा देवता, श्रीदत्तप्रीत्यर्थं
जपे विनियोग: ||

जगदुत्पत्तिकर्त्रे च
स्थितिसंहारहेतवे |
भवपाशविमुक्ताय
दत्तात्रेय नमोस्तु ते ||1||
*(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, जगाची उत्पत्ती करणार्‍या, तसेच जगाचे अस्तित्व व नाश यांना कारण असणार्‍या पण संसारबंधनापासून मुक्त असणाऱ्या तुम्हांला नमस्कार असो.)

जराजन्मविनाशाय
देहशुद्धिकराय च |
दिगंबर दयामुर्ते
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||2||
*(अर्थ :- हे दिगंबर, दत्तात्रेय, आपण दयेचे मुर्तिमंत रुप. वार्धक्य व पुनर्जन्म नाहीसे करणार्‍या आणि देह शुद्ध करणार्‍या तुम्हांला  नमस्कार असो. )

कर्पूरकान्तिदेहाय
ब्रम्मूर्तिधराय च  |
वेदशास्त्रपरिज्ञाय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||3||
*(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, आपली देहकांति कापरासारखी. आपणच ब्रम्हदेवरुप धारण केलेत. वेद-शास्त्र पूर्ण जाणणार्‍या तुम्हांला नमस्कार असो.)

ह्रस्वदीर्घकृशस्थूल
नामगोत्रविवर्जित |
पञ्चभूतैकदीप्ताय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||4||
*(अर्थ :- स्वेच्छेने आखूड, लांब, कृश, स्थूल रुपे धारण करणारे पण नाव व गोत्र नसलेले हे दत्तात्रेय, पंचमहाभूते हेच एक दीप्तिमान शरीर असणाऱ्या तुम्हांला नमस्कार असो.)

यज्ञभोक्त्रे च यज्ञाय
यज्ञरुपधराय च |
यज्ञप्रियाय सिध्दाय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||5||
(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, यज्ञाचा उपभोग घेणार्‍या, स्वतः यज्ञ असलेल्या, यज्ञरुप धारण करणाऱ्या, यज्ञ प्रिय असणाऱ्या सिद्ध अशा तुम्हांला नमस्कार असो.)

आदौ ब्रम्हा मध्ये विष्णुर्
अन्ते देवः सदाशिवः |
मुर्तित्रयस्वरुपाय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||6||
(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, उजवीकडून आधी ब्रम्हा, मध्ये विष्णू, शेवटी सदाशिव अशा त्रिमूर्तिरुप तुम्हांला नमस्कार असो.)

भोगालयाय भोगाय
योगयोग्याय धारिणे |
जितेन्द्रिय जितज्ञाय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||7||
(अर्थ :- हे जितेन्द्रिय दत्तात्रेय, सर्व सुखभोगांची खाण व सुखभोगस्वरुप आपणच. योगाला योग्य रुप आपण धारण केलेत. संयमी लोकांनाच ज्यांचे ज्ञान होते, अशा तुम्हांला नमस्कार असो.)

दिगंबराय दिव्याय
दिव्यरुपधराय च |
सदोदितपरब्रम्ह
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||8||
(अर्थ :- हे नित्य परब्रह्मरुप दत्तात्रेय, दिशा हेच आपले वस्त्र. स्वतः दिव्य असून दिव्य रुप धारण करणाऱ्या तुम्हांला नमस्कार असो.)

जम्बूद्वीपे महाक्षेत्रे
मातापुरनिवासिने |
जयमानः सतां देव
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||9||
(अर्थ :- नेहमी विजयी होणारे, संतांचें देव, हे दत्तात्रेय, जम्बूद्वीपातील महाक्षेत्र अशा मातापुरात माहुरगडावर आपण राहता. तुम्हांला नमस्कार असो.)

भिक्षाटनं गृहे ग्रामे
पात्रं हेममयं करे |
नानास्वादमयी भिक्षा
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||10||
(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, हातात सुवर्ण पात्र घेऊन गावागावांत घराघरांतून भिक्षा मागून नाना प्रकारच्या स्वादांनी युक्त भिक्षा घेणार्‍या तुम्हांला नमस्कार असो.)

ब्रम्हज्ञानमयी मुद्रा
वस्त्रे चाकाशभूतले |
प्रज्ञानघनबोधाय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||11||
(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, ज्यांनी ब्रम्हज्ञान  - मुद्रा धारण केली आहे, आकाश व पृथ्वी ही ज्यांची वस्त्रे आहेत. आणि ज्यांची जाणीव आत्मज्ञानपूर्ण आहे, अशा तुम्हांला नमस्कार असो.)

अवधूत सदानंद
परब्रह्मस्वरुपिणे |
विदेहदेहरुपाय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||12||
*(अर्थ :- हे अवधूत, नित्य आनंदरूप दत्तात्रेय, देहात असूनही विदेही अशा परब्रह्मस्वरुप तुम्हांला नमस्कार असो.)

सत्यरुप सदाचार
सत्यधर्मपरायण |
सत्याश्रय परोक्षाय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||13||
*(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, सत्यरुपी, सदाचरणात व धर्मात तत्पर व सत्याचे आश्रय तुम्ही आहात. इंद्रियांना न कळणार्या तुम्हांला नमस्कार असो.)

शूलहस्त गदापाणे
वनमालासुकन्धर |
यज्ञसूत्रधर ब्रम्हन्
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||14||
*(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, आपण हातात त्रिशूळ व गदा धारण केली आहे. आपला गळा वनातील फुलांच्या माळांनी शोभत आहे. यज्ञोपवीत धारण करणार्‍या ब्राह्मणस्वरुप आपल्याला नमस्कार असो.)

क्षराक्षरस्वरुपाय
परात्परतराय च |
दत्तमुक्तिपरस्तोत्र
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||15||
*(अर्थ :- हे दत्तात्रेय, विनाशी विश्वरुप व अविनाशी परमात्मरुप आपनच धारण करता. मुक्तिपर स्तोत्र रचण्याची स्फुर्ती आपणच दिली. पर अशा प्रकृतीच्याही पलीकडे असणाऱ्या आपल्याला नमस्कार असो.)

दत्तविद्याय लक्ष्मीश
दत्तस्वात्मस्वरुपिणे |
गुणनिर्गुणरुपाय
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||16||
*(अर्थ :- हे लक्ष्मीचे स्वामी दत्तात्रेय, ज्यांनी ब्रम्हविद्या दिली व आत्मस्वरूपाची प्राप्ती करुन दिली, ज्यांची त्रिगुणात्मक व त्रिगुणातीत अशी उभय रुपे आहेत, अशा आपल्याला नमस्कार असो.)

शत्रुनाशकरं स्तोत्रं
ज्ञानविज्ञानदायकम् |
सर्वपापं शमं याति
दत्तात्रेय नमोSस्तु ते ||17||
*(अर्थ :- हे स्तोत्र शत्रूंचा नाश करणारे, तसेच शास्त्रज्ञान व प्रत्यक्ष ब्रम्हानुभव देणारे असून याच्या पठणाने सर्व पापांचे शमन होते. हे दत्तात्रेय, आपल्याला नमस्कार असो.)

इदं स्तोत्रं महद्दिव्यं
दत्तप्रत्यक्षकारकम् |
दत्तात्रेयप्रसादाच्च
नारदेन् प्रकीर्तितम् ||18||
|| इति श्रीनारदपुराणे नारदविरचितं
दत्तात्रेयस्तोत्रं संपूर्णम् ||
*(अर्थ :- हे स्तोत्र अतिशय दिव्य असून श्रीदत्तात्रेयांचे साक्षात् दर्शन करविणारे आहे. हे श्रीदत्तात्रेयांच्या कृपेने नारदमुनींनी रचले आहे.)
असे हे श्रीनारदपुराणातील श्रीनारदांनी रचलेले हे दिव्य श्रीदत्तात्रेयस्तोत्र पूर्ण झाले.

|| ॐ अवधूत चिंतन श्रीगुरुदेवदत्त दत्त दत्त ||
॥ श्रीस्वामीगुरुमाऊली चर्णार्पणमस्तु ॥

दत्त जयंतीच्या हार्दिक शुभेच्छा