रविवार, १५ नोव्हेंबर, २०१५

बच्चों संभाल के :~ केतन गुरव


अलग-अलग जवाब मिलेंगे
एक ही सवाल के,
इस जहाँ को रखना जरा
बच्चों संभाल के,

कोई अङ जाएगा
अपनी ही बात पर,
कोई लङ जाएगा
मजहब और जात पर,

हर बात में यहाँ
जाने कितनी ही बात है,
दिन डर में गुज़रता है
और डराती-सी रात है,

नासमझों की भीड़ है
तुम खोना नहीं,
थोड़ा-थोड़ा रहना हर जानवर
तुम पूरे आदमी कभी होना नहीं,

बेज़ुबान कट जाते हैं
पर कहते कुछ नहीं,
जो लोग बँट जाते हैं,
हैं रहते कुछ नहीं

अमन और रोटियाँ
बांटते रहो,
बैर के खर पतवारों को
फसलों से छांटते रहो,

ये जहाँ साँसों का एक दौर है
गुज़रों जो तो कुछ नया करो,
साँसों के मेहमान तुम
नई नज़र बया करो,

भेड़चाल भीड़ हर ओर है
झूठ और मतलब का ही शोर है,
अपने कदम बढ़ाना नयी राह पर
दिल ना दुःखाना मतलबी चाह पर,

हर आँख अश्क से तर-बतर है
ये जहाँ दर्द दर्ज घायल शहर है,
चोट जो लगे तो दर्द जानकर
मुस्कुरा दर्द-से-दर्द बांटते चलो,

ना कभी झूकने पाए शर्म से नज़र
ये जहाँ है अब हवाले
सबके जैसे हो ना जाना
बच्चों है फिकर, बच्चों है फिकर।

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत:

टिप्पणी पोस्ट करा